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Showing posts from April, 2022

बिजनौर में पर्यटन की संभावनाएं

  बिजनौर जनपद बिजनौर यह   विश्व प्रसिद्ध वह स्थान है ,जहां   राजा दुष्यंत और ऋषि कन्या शकुंतला के संसर्ग से    भरत नामका बलवान पुत्र उत्पन्न हुआ।इसी भरत के नाम पर देश का नाम भारतवर्ष पड़ा । महाभारत के समय हस्तिनापुर राज्य के महामात्य विदुर की कुटी बिजनौर से लगभग 12 किलोमीटर दूर है। चांदपुर से चार किलोमीटर दूर सेन्धवार में गुरु द्रोणाचार्य का सैन्य प्रशिक्षण केंद्र था। यहीं   रहकर कौरव और पांडव ने युद्ध कला सीखी । हस्तिनापुर की सैन्य छावनी भी यहीं थी।   उस समय इसका नाम सैन्यद्वार था। ये बोलचाल की भाषा में आज सैंधवार हो गया।   महाभारत काल और उससे पहले     देवपुरी और पर्वतारोहण का रास्ता इसी भूमि से था।   पांडवों स्वर्गारोहण को इसी भूमि से होकर गए। स्वर्गारोहण को जाते समय   सर्वप्रथम   द्रौपदी का निधन जनपद के गांव बरमपुर के पास हुआ। यहां आज द्रोपदी   का मंदिर है। पर्यटन विभाग द्वारा सुन्दरीकृत कराया तालाब इस मंदिर के पास में स्थित है। कोटद्वार नजीबाबाद मार्ग पर प्राचीन महत्ता का स्थल मोरध्वज हैं। यहां बौद्ध स्तूप भी है। प्राचीन स्थल है। गढ़वाल विश्वविद्यालय ने यहां पर खनन कराया।  

गंज, दारानगर एवं जहानाबाद

  गंज, दारानगर एवं जहानाबाद महाभारत काल के क्षेत्र रहे हैं । दारानगर के पास विदुरकुटी है। यहां हस्तिनापुर के महामात्य विदुर का निवास   था। यही भगवान कृष्ण ने दुर्योधन की मेवा त्याग कर विदुर के यहां साग   खाया था।   विदुर महाभारत के युद्ध में विधवा हुई महिलाओं को लेकर यहां आ गए थे। विदुरकुटी के पीछे उन्होंने इन महिलाओं को बसाया था। महिलाओं को दारा भी कहा जाता है। जहां महिलाओं को बसाया गया। उस जगह का नाम दारानगर हुआ। आज दारानगर की प्राचीन बिल्डिंग में एक बिल्डिंग के द्वार के अवशेष मौजूद थे। इसे सराय कहा जाता है। यहां छोटा सा मदरसा चल रहा है। द्वार के बाद अंदर काफी बड़ा बराण्डा है। ब्रांउडी के दोनों साइड में तिदरी है। तीदरी की   साइड से जीना है। जीने   के द्वार छोटे हैं। इनसे झुककर जाना पड़ता है। इसके ऊपर एक कोठरी है , जो मुख्य द्वार के बरांडे में खुलती है। सरकशे बिजनौर में सर सैयद लिखते हैं कि नवाब नजीबुदौला ने दारानगर में   मदरसा, मस्जिद और कुआ बनवाया था।संभावतः   यह वही जगह है।कुआ अब बंद हो गया। सर सैयद साहब की पुस्तक सर सरकशे बिजनौर की कॉपी मास्टर शराफत हुसैन साहब को यहीं से

अहरौला गांव

  बास्टा से   आगे अहरौला गांव हैं।इस गांव में एक ही परिवार के व्यक्ति रहतें हैं!   वैसे तो लगभग सभी जाति के व्यक्ति रहतें हैं   किंतु जाटों का एक परिवार यहां   फल −फूल रहा है। इस परिवार के सदस्य बतातें हें कि हमारे पूर्वज लगभग   1702 में हरियाणा प्रांत के महम कस्बे से मानक चौक जिला गाजियाबाद आए। आपसी विवाद के कारण   वहां से लगभग 255 साल पहले इस स्थान   पर आ गए। हमारे पूर्वज देशराज सिंह ने यह   ग्राम अहरौला बसाया और यहीं   रह गए। उनका परिवार बढता रहा।यहां रहने वाले जाट सभी पस में तहेरे −चचेरे भाई बहिन है। गांव के पश्चिम में बहुत ऊं चा खेड़ा था।   हम लोगों के आने से पहले यहां गूजर   रहते थे। वे इस   खेड़े की पूजा करते थे।उनके यहां से जाने के कारण का पता नही चला। उनके जाने के   बाद हमारे पूर्वज इस स्थान को देवता के रूप में पूजने   लगे। यह लगभग   12 से 15 फिट ऊ ंचा स्थान था।इस पर कई तरह के वृक्ष और झाड़ खड़े थे।     इस स्थान के लिए पहले लगभग चार बिघा जमीन छूटी हुई थी। सन 1962−63 में पास के किसान ने चकबंदी में इसकी कीमत लगवाई और इसे अपने खेत में मिला लिया।अब यह चक कटकर सोहन पुत्र चूहां

स्वामी मनमथन

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      केरल के रहने वाले स्वामी मनमथन ने बिजनौर में रहकर गरीब   बच्चों में शिक्षा की अलख जगाने का कार्य किया। वे कई साल बिजनैर जनपद मे रहे । बाद में उत्तरांचल चले गए। उत्तराखंड भूमि के ज्ञान कोष साइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार स्वामी मनमथन ‌का जन्म दक्षिण भारत की सुरम्य स्थली केरल में 18 जून सन् 1939 को एक अध्यापक के घर में हुआ। इनका प्रारम्भिक नाम ' उदय मंगलम् चन्द्र शेखरन मन्मथन मेलन ' था। बालक मन्मथन बाल्यावस्था की शिक्षा प्राप्त कर जब किशोर हुए। तो उनके मन में अनेक जिज्ञासाएं जन्म लेने लगी। समाज में व्याप्त कुरीतियों , अंधविश्वास , रूढ़िवादिता , शोषण आदि से उन्होंने समाज को घिरे हुए पाया। यौवनावस्था में ही समाज कल्याण की प्रबल इच्छा लिए वह घर से निकल पड़े। सबसे पहले मन्मथन बंगाल पहुँचे। वहाँ उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और शोध कार्य भी करते रहे। स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा से प्रभावित मन्मथन को राम कृष्ण मिशन के सिद्धांतों ने भी प्रभावित किया। सत्य और ज्ञान की उनकी निरन्तर खोज चलती रही। इसी श्रृंखला में वे पांडिचेरी पहुँचे । वे महर्षि अरविंद के दर्शन पाकर अभिभूत

164 साल के सफर में दस गुना ही बढ़ी बिजनौर की आबादी

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अशोक मधुप दुनिया ने बहुत तरक्की कर ली किंतु बिजनौर शहर वहीं का वहीं रहा। 164 साल में इसकी आबादी दस गुना ही बढ़ी।1847 में बिजनौर शहर की आबादी 9280 थी । सन् 2011 में यह बढकर 93392 ही हुई। जबकि मेरठ की आबादी सौ साल में एक हजार गुना बढ़ी। 1847 में पहली बार जनगणना हुई। जिला गजेटियर के अनुसार इस समय बिजनौर की आबादी 9280 थी। बिजनौर जिला मुख्यालय 1824 में बना। इसी समय सरकारी कार्यालय यहां काम करने लगे थे। कर्मचारी अधिकारी भी आ चुके थे।जिला बनने के 23 साल बाद बिजनौर शहर कर आबादी 9280 थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जिला बनने से पहले इसकी आबादी क्या रही होगीॽजबकि 1847 में नगीना ,शेरकोट और चांदपुर की आबादी बिजनौर से ज्यादा थी। नगीना की आबादी 11001,चांदपुर 11491 और शेरकोट की 11245 थी। 1886 के जिला गजेटियर में नजीबाबाद की आबादी नही दी । यह भी बिजनौर से ज्यादा होनी चाहिए। 1853 में दुबारा हुई जनगणना में नजीबाबाद की आबादी 19999 थी। 1853 में बिजनौर शहर की आबादी बढकर 11754 हो गई।1865 में 12566, 1872 में 12862,1881 में 15147,1891 में 16226 और 1901 में 17583 हुई। जिला गजेटियर कहता है कि