बिजनौर में सावन की कांवड़ पर चिंगारी सांध्य में मेरा लेख-
बिजनौर में नही रही सावन की कांवड़ लाने की परंपरा
अशोक मधुप
बिजनौर भारशिव की भूमि है फिर भी यहां सावन में कांवड़ आने की परम्परा नही रही।
हरिद्वार से सटा होने पर भी यहां सावन में कांवड़ नही आतीं। यहां जाड़ों में शिवरात्रि पर कांवड़ आने की परंपरा रही है।
बिजनौर हरिद्वार से सटा जिला है।इसके बावजूद भी बरसात में हरिद्वार जाना पहले सरल नही था। बरसात में गंगा पूरे उफान पर होती थी1 उसे पार कर हरिद्वार जाना पहले संभव नही था।जनपद का हरिद्वार से गहरा नाता रहा है। हरिद्वार में गुरूकुल कांगड़ी विबिजनौर में सावन की कांवड़ पर चिंगारी सांध्य में मेरा लेख-श्वविद्यालय की स्थापना बिजनौर निवासी मुंशी अमन सिंह की भूमि पर हुई। ये विश्व विद्यालय बिजनौर के हरिद्वार से सटे पर गंगा के बिजनौर साइड के छोर पर गांव कांगड़ी में प्रारंभ हुआ। इसकी स्थापना के समय जनपद में स्नातक और उससे ऊपर की शिक्षा के लिए कोई महाविद्यालय नही था।इसलिए मेरे से पहली पीढ़ी प्रायः इसी शिक्षा के मंदिर में पढ़कर बड़ी हुई। वैसे भी उस समय उच्च शिक्षा कुछ ही ले पाते थे। वे भी प्रायः संपन्न परिवार से होते।
इसलिए पास में यह शिक्षा का मंदिर उनके नजदीक था। यह संस्थान आर्य समाज द्वारा संचालित था,इसलिए बिना भेदभाव यहां शिक्षा मिलती।उच्च शिक्षा के उत्सुक निम्न जाति के गरीब युवाओं के लिए भी ये प्रतिष्ठान उपयुक्त था। मैंने 1965 में हाईस्कूल पास किया। उस समय हिंदी साहित्य सम्मेलन की परीक्षा का बिजनौर के पास सबसे बड़ा केंद्र ऋषिकुल विद्यापीठ ज्वालापुर होता। इसमें कई हजार छात्र प्रतिवर्ष परीक्षा देते।मैंने 1965 में यहां से साहित्यरत्न की परीक्षा दी।साहित्य रत्न के बाद आयुर्वेद रत्न किया। प्रत्येक कोर्स दो साल का था। इसलिए परीक्षा फार्म भरने एवं परीक्षा देने साल में दो बार जाना होता।इस समय हरिद्वार जाने का एक मात्र साधन ट्रेन ही थी। हम लोग परीक्षा देने जाने से पूर्व गंगा स्नान करते। उस समय हरकी पैड़ी के सामने घंटाघर की घड़ी वाला ही घाट था।इसके बाद गंगा बहती। परीक्षा दिसंबर में होती । इस समय गंगा में जल कम होता। हम आराम से जल को पार कर चंडी देवी के पहाड़ के नीचे चले जाते। वहां से खूबसूरत पत्थर एकत्र करते ।1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बिजनौर हरिद्वार मार्ग के चंडीपुल का उद्घाटन किया। पर इस मार्ग के बनने में सबसे बड़ा व्यवधान वन विभाग की अनुमति मिलना रहा। बडी मुश्किल से अनुमति मिली। उसके बाद ये रास्ता बना। इसके बाद ही हरिद्वार जाना सुलभ हुआ।चंडी का पुल अब हरिद्वार में है। कभी ये आधा बिजनौर में और आधा हरिद्वार में होता था।पुल के नीचे अब भवन बन गए। पहले गंगा बहती थी। पुराने लोग मानते हैं कि बरसात में गंगा में भारी जल आने के कारण हरिद्वार से बिजनौर का आवागमन सरल नही था। वैसे भी जनपद में नदियां बहुत हैं। बरसात में ये उफान पर होतीं थीं। इनसे निकलना आज से 40−50 साल पहले बहुत ही कठिन था। हरिद्वार के रास्ते में तीन चार नदियां पड़ती है। पहाड़ों पर बारिश होने पर ये अभी कुछ साल पहले तक मार्ग बंद कर देती थीं।इस लिए सावन में यहां कांवड़ नही आती थीं।
जाड़ों में गंगा में जल काफी कम हो जाता।इससे हरिद्वार सरलता से आया –जाया जाता,तब यहां के श्रद्धालू कांवड लेने जाते।गंग नहर ब्रिटिश काल की बनी है।उसके किनारे− किनारे हरिद्वार जाना सरल था, इसलिए मेरठ, गाजियाबाद मुजफ्फरनगर आदि के श्रृद्धालू पहले से सावन में कावंड लाते रहे। हाल में बिजनौर जनपद के भी काफी कांवडिए कांवड लेने हरिद्वार जाने लगे हैं।
बिजनौर भारशैव की भूमि है। बिजनौर गजेटियर कहता है कि ये भारशैव अपने कंधे पर शिवलिंग रखकर चलते थे।जनपद पर कई बार आक्रांताओं के हमले हुए। इस कारण प्राचीन धर्मस्थल जनपद में नही मिलते। आज जो हिंदू धर्म स्थल हैं, उनमें सिर्फ शिवालय ही हैं।
ये मुस्लिम काल के अंत और ब्रिटिश काल के समय के बने हैं।भगवान राम और कृष्ण के पुराने मंदिर जनपद में नही हैं।
साहनपुर के सामने बना शिवालय प्रसिद्ध है। ये मोटा महादेव कहलाता है। इसका शिव लिंग मोटा है और देखने में लिंग का अग्रभाग लगता है।झारखंडी के नाम से जनपद में कई शिवालय हैं। विधर्मियों द्वारा खंडित नगरों और मंदिरों के अवशेष के झाड, झूंड और (अवशेष)खेड़ों से खुदाई में शिवलिंग मिले। इनके बने शिवालय झारखंडी (झाड़ के खंड में मिले)कहलाए। पुराने शिवालयों में नांगल सोती से गंगा की और जाने वाले मार्ग का शिवालय भी है। इसकी खास बात यह है कि पानी की धार पड़ने के कारण शिवलिंग में छेद बन गया है। यहां बस स्टेंड पर बने शिव लिंग में त्रिमुखी है और इसमें भगवान शंकर की आकृति उकेरी हुई हैं।केवलानंद निगमागम आश्रम गंज दारानगर और शेरकोट में रानी फूलकुंवारी द्वारा बनवाया शिवालय अपने में अलग है। इनके शिव लिंग काफी बड़े हैं। इन मंदिरों में परिक्रमा भी अंदर ही बनी हुई है। पूजा के बाद भक्त इनमें घूमकर परिक्रमा करते हैं।
गंज में घाट पर कई पुराने शिवालय हैं। यहीं बस स्टेंड पर सड़क के उत्तर में बने शिवालय की बड़ी मान्यता है। कहा जाता है कि ये शिव लिंग घूमता है। इस शिवालय की बहुत मान्यता है।
गजरौला शिव में जंगल में गुजरातियों का का बनवाया हुआ मंदिर है। बताया जाता है कोई गुजराती परिवार काफी पहले बैलगाड़ी में रखकर अपने यहां के लिए हरिद्वार से शिव लिंग लेकर जा रहा था। यहां से गुजरते बैल गाड़ी के नीचे का भाग टूट गया।इससे शिवलिंग जमीन पर आकर रखा गया। बहुत कोशिश करने के बाद भी यह शिवलिंग भूमि से नही उठ सका। मजबूरन यहीं पर इन्होंने शिवलिंग की स्थापना करके शिवालय बनवा दिया।इस क्षेत्र में काफी भूमि भी मदिंर के नाम है। ये भूमि गुजरातियों की भूमि के नाम से प्रसिद्ध है। शिव लिंग का किनारा जरासा टूटा हुआ है। गजरौला अचपल निवासी स्वर्गीय हरबंशलाल स्वतंत्रता सैनानी हुए हैं। उन्होंने इस पत्रकार को बताया था कि एक रात में उन्होंने इस शिवलिंग को हथोड़े से तोड़ने का प्रयास किया था,इससे कुछ किनारा चटक गया था, किंतु काफी प्रयास क बाद भी शिव लिंग टूटा नहीं था।
बिजनौर में जलालपुर घाट को जाने वाले मार्ग पर निहाल सिंह की कोठी का शिवालय प्रसिद्ध है।शिवरात्रि पर यहां काफी संख्या में कावंड चढ़ती हैं। ये शिवालय बिना छत का है।साथ ही कुछ गहराई में जाकर शिवलिंग है। इसमे पूजा के लिए कुछ पैड़ी नीचे उतरना पड़ता है। बिजनौर के पुराने शहर अचारजान, जाटान में भी कुछ शिवालय हैं। बिजनौर झालू मार्ग पर कुबड़ा मंदिर नामक भी शिव मंदिर है। कहा जाता है कि कई बार इसका कलश बनवाया। ये कभी सीधा नही बना। कलश टेढ़ा होने से इसे कुबड़ा मंदिर कहकर पुकारा जाता है।
अशोक मधुप
अशोक मधुप
बिजनौर भारशिव की भूमि है फिर भी यहां सावन में कांवड़ आने की परम्परा नही रही।
हरिद्वार से सटा होने पर भी यहां सावन में कांवड़ नही आतीं। यहां जाड़ों में शिवरात्रि पर कांवड़ आने की परंपरा रही है।
बिजनौर हरिद्वार से सटा जिला है।इसके बावजूद भी बरसात में हरिद्वार जाना पहले सरल नही था। बरसात में गंगा पूरे उफान पर होती थी1 उसे पार कर हरिद्वार जाना पहले संभव नही था।जनपद का हरिद्वार से गहरा नाता रहा है। हरिद्वार में गुरूकुल कांगड़ी विबिजनौर में सावन की कांवड़ पर चिंगारी सांध्य में मेरा लेख-श्वविद्यालय की स्थापना बिजनौर निवासी मुंशी अमन सिंह की भूमि पर हुई। ये विश्व विद्यालय बिजनौर के हरिद्वार से सटे पर गंगा के बिजनौर साइड के छोर पर गांव कांगड़ी में प्रारंभ हुआ। इसकी स्थापना के समय जनपद में स्नातक और उससे ऊपर की शिक्षा के लिए कोई महाविद्यालय नही था।इसलिए मेरे से पहली पीढ़ी प्रायः इसी शिक्षा के मंदिर में पढ़कर बड़ी हुई। वैसे भी उस समय उच्च शिक्षा कुछ ही ले पाते थे। वे भी प्रायः संपन्न परिवार से होते।
इसलिए पास में यह शिक्षा का मंदिर उनके नजदीक था। यह संस्थान आर्य समाज द्वारा संचालित था,इसलिए बिना भेदभाव यहां शिक्षा मिलती।उच्च शिक्षा के उत्सुक निम्न जाति के गरीब युवाओं के लिए भी ये प्रतिष्ठान उपयुक्त था। मैंने 1965 में हाईस्कूल पास किया। उस समय हिंदी साहित्य सम्मेलन की परीक्षा का बिजनौर के पास सबसे बड़ा केंद्र ऋषिकुल विद्यापीठ ज्वालापुर होता। इसमें कई हजार छात्र प्रतिवर्ष परीक्षा देते।मैंने 1965 में यहां से साहित्यरत्न की परीक्षा दी।साहित्य रत्न के बाद आयुर्वेद रत्न किया। प्रत्येक कोर्स दो साल का था। इसलिए परीक्षा फार्म भरने एवं परीक्षा देने साल में दो बार जाना होता।इस समय हरिद्वार जाने का एक मात्र साधन ट्रेन ही थी। हम लोग परीक्षा देने जाने से पूर्व गंगा स्नान करते। उस समय हरकी पैड़ी के सामने घंटाघर की घड़ी वाला ही घाट था।इसके बाद गंगा बहती। परीक्षा दिसंबर में होती । इस समय गंगा में जल कम होता। हम आराम से जल को पार कर चंडी देवी के पहाड़ के नीचे चले जाते। वहां से खूबसूरत पत्थर एकत्र करते ।1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बिजनौर हरिद्वार मार्ग के चंडीपुल का उद्घाटन किया। पर इस मार्ग के बनने में सबसे बड़ा व्यवधान वन विभाग की अनुमति मिलना रहा। बडी मुश्किल से अनुमति मिली। उसके बाद ये रास्ता बना। इसके बाद ही हरिद्वार जाना सुलभ हुआ।चंडी का पुल अब हरिद्वार में है। कभी ये आधा बिजनौर में और आधा हरिद्वार में होता था।पुल के नीचे अब भवन बन गए। पहले गंगा बहती थी। पुराने लोग मानते हैं कि बरसात में गंगा में भारी जल आने के कारण हरिद्वार से बिजनौर का आवागमन सरल नही था। वैसे भी जनपद में नदियां बहुत हैं। बरसात में ये उफान पर होतीं थीं। इनसे निकलना आज से 40−50 साल पहले बहुत ही कठिन था। हरिद्वार के रास्ते में तीन चार नदियां पड़ती है। पहाड़ों पर बारिश होने पर ये अभी कुछ साल पहले तक मार्ग बंद कर देती थीं।इस लिए सावन में यहां कांवड़ नही आती थीं।
जाड़ों में गंगा में जल काफी कम हो जाता।इससे हरिद्वार सरलता से आया –जाया जाता,तब यहां के श्रद्धालू कांवड लेने जाते।गंग नहर ब्रिटिश काल की बनी है।उसके किनारे− किनारे हरिद्वार जाना सरल था, इसलिए मेरठ, गाजियाबाद मुजफ्फरनगर आदि के श्रृद्धालू पहले से सावन में कावंड लाते रहे। हाल में बिजनौर जनपद के भी काफी कांवडिए कांवड लेने हरिद्वार जाने लगे हैं।
बिजनौर भारशैव की भूमि है। बिजनौर गजेटियर कहता है कि ये भारशैव अपने कंधे पर शिवलिंग रखकर चलते थे।जनपद पर कई बार आक्रांताओं के हमले हुए। इस कारण प्राचीन धर्मस्थल जनपद में नही मिलते। आज जो हिंदू धर्म स्थल हैं, उनमें सिर्फ शिवालय ही हैं।
ये मुस्लिम काल के अंत और ब्रिटिश काल के समय के बने हैं।भगवान राम और कृष्ण के पुराने मंदिर जनपद में नही हैं।
साहनपुर के सामने बना शिवालय प्रसिद्ध है। ये मोटा महादेव कहलाता है। इसका शिव लिंग मोटा है और देखने में लिंग का अग्रभाग लगता है।झारखंडी के नाम से जनपद में कई शिवालय हैं। विधर्मियों द्वारा खंडित नगरों और मंदिरों के अवशेष के झाड, झूंड और (अवशेष)खेड़ों से खुदाई में शिवलिंग मिले। इनके बने शिवालय झारखंडी (झाड़ के खंड में मिले)कहलाए। पुराने शिवालयों में नांगल सोती से गंगा की और जाने वाले मार्ग का शिवालय भी है। इसकी खास बात यह है कि पानी की धार पड़ने के कारण शिवलिंग में छेद बन गया है। यहां बस स्टेंड पर बने शिव लिंग में त्रिमुखी है और इसमें भगवान शंकर की आकृति उकेरी हुई हैं।केवलानंद निगमागम आश्रम गंज दारानगर और शेरकोट में रानी फूलकुंवारी द्वारा बनवाया शिवालय अपने में अलग है। इनके शिव लिंग काफी बड़े हैं। इन मंदिरों में परिक्रमा भी अंदर ही बनी हुई है। पूजा के बाद भक्त इनमें घूमकर परिक्रमा करते हैं।
गंज में घाट पर कई पुराने शिवालय हैं। यहीं बस स्टेंड पर सड़क के उत्तर में बने शिवालय की बड़ी मान्यता है। कहा जाता है कि ये शिव लिंग घूमता है। इस शिवालय की बहुत मान्यता है।
गजरौला शिव में जंगल में गुजरातियों का का बनवाया हुआ मंदिर है। बताया जाता है कोई गुजराती परिवार काफी पहले बैलगाड़ी में रखकर अपने यहां के लिए हरिद्वार से शिव लिंग लेकर जा रहा था। यहां से गुजरते बैल गाड़ी के नीचे का भाग टूट गया।इससे शिवलिंग जमीन पर आकर रखा गया। बहुत कोशिश करने के बाद भी यह शिवलिंग भूमि से नही उठ सका। मजबूरन यहीं पर इन्होंने शिवलिंग की स्थापना करके शिवालय बनवा दिया।इस क्षेत्र में काफी भूमि भी मदिंर के नाम है। ये भूमि गुजरातियों की भूमि के नाम से प्रसिद्ध है। शिव लिंग का किनारा जरासा टूटा हुआ है। गजरौला अचपल निवासी स्वर्गीय हरबंशलाल स्वतंत्रता सैनानी हुए हैं। उन्होंने इस पत्रकार को बताया था कि एक रात में उन्होंने इस शिवलिंग को हथोड़े से तोड़ने का प्रयास किया था,इससे कुछ किनारा चटक गया था, किंतु काफी प्रयास क बाद भी शिव लिंग टूटा नहीं था।
बिजनौर में जलालपुर घाट को जाने वाले मार्ग पर निहाल सिंह की कोठी का शिवालय प्रसिद्ध है।शिवरात्रि पर यहां काफी संख्या में कावंड चढ़ती हैं। ये शिवालय बिना छत का है।साथ ही कुछ गहराई में जाकर शिवलिंग है। इसमे पूजा के लिए कुछ पैड़ी नीचे उतरना पड़ता है। बिजनौर के पुराने शहर अचारजान, जाटान में भी कुछ शिवालय हैं। बिजनौर झालू मार्ग पर कुबड़ा मंदिर नामक भी शिव मंदिर है। कहा जाता है कि कई बार इसका कलश बनवाया। ये कभी सीधा नही बना। कलश टेढ़ा होने से इसे कुबड़ा मंदिर कहकर पुकारा जाता है।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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