कभी खोखरा मैदान नाम था प्रदर्शनी स्थल का

 अशोक मधुप

बिजनौर का  प्रदर्शनी मैदान  कभी खोखरा मैदान कहलाता था।यह सेना के पड़ाव की भूमि थी। यह मैदान चांदमारी का मैदान भी कहा जाता रहा है। बाद में इसका बंटवारा हुआ।स्टेडियम तक की भूमि जिला प्रशासन को मिली। आगे की सेना ने अपने पास रही।जिला प्रशासन ने आधी भूमि  में स्टेडियम बनाया। आधी प्रदर्शनी मैदान के लिए नगर पालिका बिजनौर के पास रही।

आज का प्रदर्शनी मैदान कभी आर्मी के पड़ाव की जगह थी। पहले जरूरत पड़ने पर एक जगह से दूसरी जगह फ़ौज आती −जाती रहती थी। उसके रुकने के लिए स्थान -स्थान पर जगह छूटी हुई थी। इन जगहों को आर्मी के पड़ाव की जगह कहा जाता था।प्रदर्शनी मैदान से लेकर इंदिरा पार्क तक की जगह आर्मी के पड़ाव की जगह थी। इस पूरे मैदान को खोखरा पौंड या खोखरा मैदान भी कहा जाता रहा है।

दरअसल इस जमीन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें कितना भी पानी भर जाए, यह पानी कुछ घंटों में जमीन में समा जाता है। जमीन के इसी गुण के कारण इस जमीन को

खोखला या खोखरा कहा गया।ये खोखला या खोखरा मैदान या  खोखरा पौंड कहा जाता रहा है।   एक और बात यह क्षेत्र दूसरे क्षेत्र से निचाई पर था, इसलिए इसमें पानी भरता । बाद में जमीन में समा जाता। पानी भरने की जगह पौंड कहलाई।

तत्कालीन जिलाधिकारी  श्री एसके विश्वास जी इस जमीन की विशेषता से वाकिफ नहीं थे। वे पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे। मछली उन्हें पसंद थी। उन्होंने इस भूमि की  जांच नही कराई। इंदिरा  पार्क की जगह उन्होंने 1971 – 72 में इंदिरा   सरोवर विकसित कराया। उन्होंने इसमें मछली पालन  की व्यवस्था की। सरोवर में जल भरने के लिए उन्होंने नलकूप भी बनवाए। मछली पालने के लिए मछली के बच्चों को  भी छोड़ा गया। मैदान की भूमि खोखरी होने के कारण  पानी भरने के कुछ घंटे के बाद ही वह जमीन में समा जाता। उनकी समझ में नहीं आया। बाद में लोगों ने इस जमीन की विशेषताओं ने बताई। उन्होंने वस्तुस्थिति समझी। यह जमीन उन्होंने वन विभाग को पार्क विकसित करने  के लिए सौंप दी। सीमा  विस्तार के बाद आज इंदिरा पार्क  नगर क्षेत्र में आ गया।

पार्क की  भूमि मत्स्य विभाग ने वन विभाग को अस्थाई रूप से पार्क  विकसित करने के लिए सौंपी थी। पर वह इस पर अवैध रूप से भवन बनाते चले गये।डीएफओ और एडीएफओ   के आवास और रेंजर का कार्यालय बना लिया  गया। कलेक्ट्रेट में एक वकील होते थे त्यागी जी। पूरा नाम याद नहीं। शायद श्री रतनवीर त्यागी।उन्होंने पार्क की भूमि पर अवैध भवन बनाने का विरोध किया। तहसील दिवस में शिकायतें कीं। धरना  दिया। पर कुछ नही हुआ।

60 के आस-पास बंटवारे में स्टेडियम से प्रदर्शनी मैदान तक जगह  प्रशासन को   मिली।शेष जमीन फ़ौज ने अपने पास रखी। उसने अपनी भूमि का कुछ भाग भारत संचार निगम को बेच दिया । भारत संचार निगम को बेची इस भूमि में आज संचार भवन और विभाग की आवासीय कॉलोनी है। कुछ भाग राजकीय पॉलिटेक्निक को भी दिया गया।शेष आपने पास रखा। सेना की जमीन में  निशानेबाजी की प्रतियोगिता होती थी,इसलिए ये मैदान चांदमारी मैदान भी कहा जाता। अब ये मैदान सेना ने एनसीसी को सौंप दिया।
 बिजनौर प्रशासन को मिली जमीन में स्टेडियम बना। बाकी जमीन प्रदर्शनी के लिए छोड़ दी गई। प्रदर्शनी की ही जमीन में इंदिरा बाल भवन बना।

स्टेडियम की भूमि पर पूर्व  राज्यमंत्री स्वर्गीय  कुंवर सत्यवीर स्कूल बनाना चाहते थे।जबकि कलेक्ट्रेट के उस समय के आफिस सुपरिंटेडेट चौधरी गुर बचन सिंह यहां स्टेडियम बनवाने  में रूचि रखते  थे। चौधरी गुरबचन सिंह बहुत बड़े खेल प्रेमी थी। सन 1962  के  अप्रेल माह में  भगवत शरण सिंह ने बिजनौर कलेक्टर का  चार्ज  लिया। पुराने लोग बताते हैं कि वे कुंवर सत्यवीर जी से  कुछ नाराजगी रखते थे। श्री गुरूबचन सिंह ने   फायदा उठाया। और ये जमीन स्टेडियम के नाम अलाट करादी।चौधरी गुरूबचन सिंह के बेटे  और पुलिस के सेवानिवृत अधिकारी अनिल चौधरी  बताते हैं कि स्टेडियम बना। नाम रखा गया नेहरू स्टेडियम ।मेरठ के रहने वाले  पूर्व  शिक्षा मंत्री कैलाश प्रकाश ने 14 नंबर 1964 को स्टेडियम का उद्घाटन किया। स्टेडियम में नेहरू के स्टेचू के पास शानदार गुलाब  वाटिका भी बनवाई गई।इसमें तरह −तरह के गुलाब लगाये गए । उत्तर प्रदेश खेल विभाग के  निर्देशक रहे स्वर्गीय जम्मन लाल के कहने पर स्टेडियम उत्तर प्रदेश खेल विभाग को सौंप दिया गया।

स्टेडियम के निर्माण को लेकर  खेल विभाग और सेना में  विवाद रहा। दरअस्ल स्टेडियम की चाहरदीवारी बनाते समय उत्तर की साइड की स्टेडियम की गलती से  कुछ जमीन छोड़कर बाउंड्री बना ली गई। पश्चिम की फौज की जगह में कुछ जमीन  लेकर अपनी बॉडी बढ़ा ली। फौज की कब्जे वाली ये ये जमीन स्टेडियम के आधे गेट से पीछे तक है। कई बार सैन्य  अधिकारी आए ।प्रशासन से उन्होंने    जमीन खाली करने को कहा।  प्रशासन के समझाने  पर कि खेल के लिए है। बच्चे और युवाओं के काम में आएगी, वह मान गए।

पुराने लोग  उस समय के  जिला क्रीड़ा अधिकारी से बार-बार कहते रहे उत्तर की साइड में अपनी छुटी जमीन पर कब्जा कर ले,पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेखक के सामने ही वरिष्ठ पत्रकार और खेल प्रेमी राजेंद्र पाल सिंह कश्यप ने  तत्कालीन जिला क्रीड़ाधिकारी मुन्ना सिंह राठौर से कई बार कहा। पर उन्होंने  विवाद में पड़ना गवारा नहीं किया । पीछे छूटी स्टेडियम की जमीन पर कब्जे   हो गए।

1950 में प्रारंभ हुई  प्रदर्शनी में बिजली नही होती थी। वरिष्ठ  पत्रकार वीपी गुप्ता जी बताते है कि उस  समय दुकान के बाहर मिट्टी के तेल से जलने वाले गैस के हंडे रोशनी के लिए  प्रयोग में लाए जाते थे।

इस प्रदर्शनी में वरिष्ठ  पत्रकार डा ओपी गुप्ता जी द्वारा स्कूल के  बच्चों के कराए  जाने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम  बहुत मशहूर हुए।पहले  जिलाधिकारी प्रदर्शनी में रूचि लेते थे। वे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए आयोजकों का चंदा भी एकत्र  करवाते थे।  पहले कार्यक्रमों के संयोजक दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कवि या शायर होते थे। श्री जय नारायण अरूण  और हुक्का बिजनौरी कई साल कवि सम्मेलन के संयोजक रहे। स्वर्गीय अतुल गुप्ता जी ने भी कई  कवि सम्मेलन कराए। तत्कालीन जिलाधिकारी एसके वर्मा ने तो एक बार प्रदर्शनी में पीनाज मसानी गजल नाइट कराई।वरिष्ठ  पत्रकार महावीर सिंह राठी कव्वाली मुकाबले के लंगे समय तक संयोजक रहे।इस पत्रकार (अशोक मधुप)  ने जनपद की एक मात्र जीवित कला चाहरबैत गायन का आयोजन भी पूर्व  पालिकाध्यक्ष फरीद अहमद से कहकर शुरू कराया। ये कई  साल चला।देखने के आया कि पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजक काफी प्रचार कराते थे। अब वे अखबार में विज्ञप्ति  प्रकाशित कराकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं।  इससे कार्यक्रम में भीड़ नही आती।

सेवानिवृत पुलिस अधिकारी अनिल चौधरी बताते हैं कि स्टेडियम की जगह कमला   सर्कस  लगा था। इसमें बीस शेर थे।  बिजनौर निवासी श्री विजय खन्ना कहतें हैं कि कमला और जैमिनी  सर्कस दोनों बिजनौर प्रदर्शनी में अपने करतब दिखा चुके हैं।

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ  पत्रकार हैं)

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