काशीराम धनवंतरि

 काशीराम धनवंतरि

काशीराम धनवंतरि जी मेरे कुटुंब के दादा होते थे।झालू में छतरी वाले कुएं और हमारे घर के बीच  दक्षिण में उनका शफाखाना और उसके पीछे उनका घर होता था।शफाखाने में उनका बैठने और मरीज देखने का स्थान अलग− अलग था।बैंच डालकर मरीजों के बैठने की व्यवस्था थी।मरीजों  के बैठने के कक्ष के पीछे उनका आराम कक्ष था।इनके मरीज देखने के स्थान के उत्तर में इनका औषधि कक्ष था।

उनके शफाखाने में  चारों ओर अलमारी लगी थीं।इन अलमारियों में आयुर्वेद का दुर्लभ साहित्य होता थी।

वैद्य  जी मुझे और मेरे छोटे भाई को बहुत प्यार करते थे।उन्होंने  अपनी  पुस्तक कभी किसी को पढ़ने के लिए नहीं दीं।किंतु मुझे  कभी मना नही किया। मेरा छोटा भाई अजय झगड़ालू था।उसका झगड़ा हो  जाता।वैद्य जी को पता चल जाता तो  वह अपना बैंत उठाते और छोटे भाई का लेकर झगड़ा होने वाले परिवार के यहां पहुंच जाते।  वैद्य जी का बड़ा  सम्मान झगड़ा  करने वाले का पिता वैद्य जी को देखकर अपने बेटे को डांट देता और मामला  खत्म हो जाता।

जाड़ों में वह शफाखाने के बाहर चबूतरे पर कुर्सी पर बैठे होते।  उनके पांव के पंजे पर बड़ा  एक्जीमा था। उसे वह चाकू से खुरचते रहते। कोई मिलने आ जाता  तब भी उनका यह कार्य जारी रहता।

बिजनौर  के दो परिवारों में उनकी बड़ी आत्मीयता थी।  उनका आना जाना था। बिजनौर के प्रसिद्ध रईस कुवंर आदित्यवीर और पत्रकार मुनीश्वरानन्द  त्यागी जी से उनकी बड़ी दोस्ती थी।बिजनौर आते तो दस−दस , 15−15 दिन इन परिवार में रहकर जाते।

कुंवर आदित्यवीर ही नहीं उनकी पत्नी कैबनेट मंत्री चंद्रावती जी से भी उनकी  निकटता थी।कुंवर आदित्यवीर के बेटे  डा  वीरेंद्र अमेरिका गए और वहीं बस गए। बिजनौर प्रवास के दौरान मुझे कई बार मिले।उनसे एक बार वैद्य जी का जिक्र आ गया।बोले – वैद्य जी हमारे ताऊ जी थे।काफी −काफी दिन हमारे घर रह जाते।  वह अपने  पास हाथ का एक थैला रखते थे।उसमें उनका सामान होता। डा. वीरेंद्र बताते हैं कि जब वैद्य जी जाने को होते तो हम उनका थैला छिपा देते।इससे  वह कुछ दिन और रूक जाते।

वैद्य जी के पास मैने शायद ही कभी मरीज देखा हो।किंतु  उनका  रहन सहन सदैव संपन्न व्यक्ति  जैसा रहा।लोग बताते थे कि उनके मरीज संपन्न व्यक्ति ही होते थे।देश  ही नही  विदेश में भी उनके मरीज थे। उन्हें वह पार्सल से दवा भेजते रहते थे।           

वैद्य जी को हारमोनियम बजाने का शौक था।  उनके पास कुर्सी पर बैठकर बजाने वाला  हारमोनियम था।उसे पांव  से  पंप  किया जाता था।  वैद्य जी जब खाली होते तो  हारमोनियम बजाते।रामलीला  में वह परशुराम और दशरथ का पाठ करते थे।

वैद्य  जी कुंवर आदित्यवीर के  बहुत नजदीकी थे।कुंवर आदित्यवीर की अपनी नाटक मंडली थी। इस मंडली को लेकर कुंवर आदित्यवीर मुंबई चले गए।  वैद्य जी भी  इनके साथ थे।वहां  इनके प्रदर्शन की तारीफ होने लगीं। शो के टिकट पूरे बिकने लगे। एक दिन शो की पहली रात में इनके थियेटर की स्टेज में आग लग गई। इन्हें टिकेट के पैसे लौटाने पड़े।मजबूरन  वापस लौट आए।अगर स्टेज में आग न लगती तो मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में  बिजनौर का  बड़ा  नाम होता।

वैद्य जी बहुत विद्यान थे। वे प्रायः पढ़ते रहते। उनके सामने बड़े− बड़े विद्वान नही टिक पाते थे।

वैद्य जी के कोई पुत्र  नही था। उनके एक बेटी बेटी संतोष थी।  संतोष की बाबूगढ़ छावनी के पास किसी गांव में शादी हुई थी।संतोष के पति  का नाम शायद ओमप्रकाश था।ये डाक्टर थे।इनका बाबूगढ़ छावनी स्टेशन से बाबूगढ़  जाने वाले रास्ते के चौराहे पर क्लिनिक था।

मैं पत्रकारिता में रम गया।वैद्य जी की पत्नी का पहले ही निधन हो गया था।मैं  बिजनौर में था कि वैद्य जी का भी निधन हो गया।मुझे पता ही नही चला।मैं  चाहता था कि उनकी पुस्तकें मुझे मिल जांए किंतु  पता चला कि उनके दामाद सारा पुस्तकालय अपने साथ ले गए।  मकान भी बेच दिया।

(अशोक मधुप की पुस्तक परिचित चेहरे का एक अंश)

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