एक सी कहानी है बिजनौर के दो परिवार की
एक सी कहानी है बिजनौर के दो परिवार की
बिजनौर के कलाल
जाटों का संघर्ष, झालू के गर्ग पठानों की
लड़ाई
अशोक
मधुप
इतिहास पढेंगे तो लगेगा कि कुछ घटनांए एक
सी हैं।सच्चाई में वे अलग− अलग हैं।इसी प्रकार की घटना है बिजनौर के बुखारे के कलाल और
बिजनौर के जाटों के संघर्ष की है। दूसरी है झालू के गर्ग
परिवार और प्रतिद्वंदी मुस्लिम परिवारों के संघर्ष की।
पुरानी मान्यताओं के अनुसार 16वीं शताब्दी के आसपास बिजनौर में एक बड़ी घटना हुई। यहां मुस्लिम कलाल
और जाट उस समय प्रमुख
रूप से रहते थे। कलाल बुखारे में रहते थे। ये जाटों से कुछ नाराजगी महसूस करते थे।
उन्होंने अपने यहां शहर
के सभी जाटों की दावत की। दावत के लिए बने खाने में जहर मिला दिए जाने के कारण
महिलाऔर बच्चों समेत सभी जाट मर गए। जाट परिवार की एक गर्भवती बहु अपने मैके में थी।उसके बच्चे को इसके परिवार
के गुरू पंडित जी ने पाला।
1907
के जिला गजेटियर में इस घटना के बारे में दिया है कि यह स्थान बिजनौर
लंबे समय से जाटों का गढ़ रहा है, और परंपरागत
वर्षों से स इन स्थानीय जाट और
मुस्लिम कलालों के बीच युद्ध छिड़ा हुआ
था। जनश्रुतियों के अनुसार बाद में जाटों में केवल वह महिला की जीवित बची , जो मैके
गई हुई थी। ये महिला गर्भवती थी।इसने मैके में एक बेटे दशानंद सिंह को ज्न्म दिया।इसने बाद में
मुस्लिम गवर्नर की मदद से अपने दुश्मनों को मार निकाला। गजेटियर कहता है कि 1605 में संभल में राज करने वाला ये गवर्नर अली जान शायद अली खान था।कलालों को
बिजनौर से निष्कासित कर दिया गया था, और उस समय से बिजनौर में जाट निर्बाध रूप से फलफूल रहे हैं।
जाट
क्षत्रिय इतिहास में योगेंद्र पाल शास्त्री इस घटना को दूसरी तरह से बतातें
हैं । वे कहते हैं कि खोबेराव
से संबंधित होने के कारण मौर्य वंश के शासक राजामान मौर्य चित्तौड़गढ़ से बीकानेर
निवास करता हुआ हस्तिनापुर आकर रहने लगा। यहां जब इन्हें अच्छे स्थान और सुरक्षित दुर्ग की दृष्टि से गंगा
के पूर्वी किनारे का परिचय मिला तो इन्होंने गंगा पार करके बिजनौर की इस बालुई भूमि पर अधिकार
प्राप्त करने के लिए आक्रमण कर दिया ।इस स्थान पर भारशिवों का कब्जा था ।यह विजय नगर नामक किले पर विदुर आश्रम से लेकर
बुखारा तक शासन करते थे। बुखारा मुस्लिम कलालों के अधिकार में था ये कलाल अपनी उत्तम और सुस्वादू शराब के लिए भारत भर में विख्यात थे।
भारशिवों ने इन जाट
आक्रांताओं का बलपूर्वक चार दिन तक सामना किया ।घोर युद्ध हुआ। विजय नगर किले पर
विजय जाटों को हुई। खोवे मौर्यवंशी राजा बेन का धूमधाम से तिलक हुआ। कलालों को भी
विवश हो मन मारकर इनकी अधीनता
स्वीकार करनी पड़ी ।कुछ समय बाद होली के अवसर पर बुखारे के कलालों ने एक बड़ी खाने पीने की
दावत राजा बेन के कुटुंबियों को दी। सपरिवार
जाट दावत में आए। दावत में शराब के दौर चले। यहां तक की स्त्रियों ने भी जमकर शराब पी।
शराब में विष मिला हुआ था ।परिणाम स्वरूप एक भी घर नहीं लौटा। सभी का मार्ग में
प्राणान्त हो गया ।केवल एक स्त्री जो पीहर गई हुई थी और संयोगवश गर्भवती थी ,केवल वही जीवित बची।
श्री
योगेंद्र पाल शास्त्री की स्त्री पुरूष सभी के शराब
पीने की बात तर्क संगत नही लगती। क्योंकि सभी औरतों ने शराब
नही पी होगी। बच्चों ने तो बिलकुल नही।इसके मुकाबले बिजनौर के जाटों में प्रचलित
बात खाने में जहर दिया गया , ज्यादा
तर्क संगत लगती है। क्योंकि खाना सबने खाया
होगा।जिला गजेटियर जिसे दशानंद सिंह कहता है, उसे बिजनौर के जाट
और श्री योगेंद्र पाल शास्त्री अपनी पुस्तक में एकोराव राणा बताते हैं।
श्री
योगेंद्र पाल शास्त्री के अनुसार मायके
में उस महिला को एक पुत्र
उत्पन्न हुआ। उसका नाम एकोराव राणा रखा गया। इस एकोराव राणा को लेकर कुल
पुरोहित पंडित रामदेव भट्ट बादशाह अकबर के दरबार में गए। उन्होंने बादशाह के सामने
बच्चे को प्रस्तुत करते हुए उनकी पूरी कहानी सुनाई। बादशाह से उनका राज्य दिलाने की
प्रार्थना की। बदले में अपने
को इस्लाम में
दीक्षित किय जाने का अनुरोध किया।
साथ ही बादशाह से एकोराव के हिंदू ही बने रहने का अनुरोध किया। बादशाह ने उनकी
सदल− बल सहायता का वचन दिया ।इस पर हुमायूं के मकबरे वाली मस्जिद में रामदेव भट्ट ने इस्लाम ग्रहण कर
लिया। तदुपरांत कुछ समय दिल्ली रहकर एकाराव के युवा होते ही शाही सेना लेकर उसने दारानगर
के पास गंगा नदी को पार किया । वहां से पांच मील दूर तक कोई बाधा सामने नहीं आई ।
आज
के झंडापुर नामक गांव के स्थान पर एकोराव राणा की सेना ने झंडा गाड़ दिया।रणभेरी
बजते ही बुखारे के कलालों ने पुराने शासक भारशिवों के ही एक वंशज को विजयनगर
का शासन दिला देने का वचन देकर संपूर्ण शक्ति से लड़ने पर सहमत कर लिया। एकोराव राणा के साथ पठान और नव
मुस्लिम राजपूत (रांगड़) बहुत बड़ी संख्या में थे।
शाही सेना के बल पर
एकोराव राणा विजय हुए। उसके समर्थकों ने भी कलालों के साथ वैसा ही किया जैसा
कलालों ने किया था ।सारे कलाल स्त्री −पुरूषों को कत्ल कर दिया गया । जाटों की तरह पीहर में गई गर्भवती
कलाल महिला ही बची ।इसकी संतान के रूप में आज भी बुखारा और स्योहारा के मुसलमान
कलाल रहते हैं ।विजय नगर का नाम पुराना
सुद्ढ किला ध्वंस कर दिया गया ।
विजेता बनकर राणा ने परिवार
विध्वंसक भूमि पर रहना
ठीक नहीं समझा । उन्होंने कुछ ही
दूरी पर दूसरा विजय नगर बसाया।
वहीं राजमहल बनवांए और 787 गांव का अपना प्रभुत्व
स्थापित कर लिया। एकोराव राणा का विधिवत राजतिलक इनके मुसलमान हुए पुरोहित रामदेव भट्ट ने किया। राजतिलक के बाद एकोराव
राणा राजा मान हो गए।वे इसी नाम से
प्रसिद्ध हुए। राजतिलक के समय
मुसलमान हुए राजपुरोहित ने राजामान से बचन
कराया कि मुस्लिम होने के बाद भी उन्ही के वंशज राजपुरोहित होंगे।हिंदू होकर भी उसे और मेरे परिवार
वालों को सलाम करेंगे। जबसे ये परंपरा आज आज तक चली आरही है। पुरोहित इब्ने हसन हुए।
सम्मान देने की परंपरा अब तक चली आती है। राजा मान की परंपरा में बड़े वाले संतान
का विस्तार हुआ। राजा मान के पश्चात राजा जहान सिंह उत्तरकाशी धार्मिक पुरुष हुए।
इन्होंने आज के विद्यमान
पांच बड़ी हवेलियां और दीवान खाना और
बड़े द्वार बनवाएं इनके पुत्र राजा
हरिसिंह हुए उनके सुप्रसिद्ध राजा नैंसी हुए। इन्हें सरकार ने चौधरी कानूनगो की
उपाधि दी और बिजनौर तहसील के कर वसूल करने का अधिकार दिया। 787 गांव में से बहुत अधिक
सरकार में चले गए। यह बस बड़े
जमीदार मात्र रह गए। इनके चार पुत्र में चौधरी भोपाल सिंह, चौधरी मुबारिक सिंह ,चौधरी प्रताप सिंह और चौधरी ज्वाला सिंह
जिले के बड़ी रइसों में गिने
गए।
योगेंद्र
पाल शास्त्री ने अपनी पुस्तक जाट
−क्षत्रिय इतिहास में पंडित का नाम रामदेव भट्ट बताया है।जिला गजेटियर ननसाल में
जन्में युवक का नाम दशानंद सिंह बताता है, जबकि जिले के जाट उसे
एकोराव कहते हैं। लेखक योगेंद्र पाल
शास्त्री उनका नाम एकोराव राणा बताते हैं। कहतें है कि यह राजा मान के नाम से
प्रसिद्ध हुए। एकोराव राणा ने मुस्लिम सेना को साथ लेकर बिजनौर पर
चढ़ाई की।झंडापुर के पास उसकी कलालों से लड़ाई हुई। इसमें सारे कलाल मार दिये गए।मैके गई कलाल परिवार
की एक गर्भवती बहु के कारण उनका परिवार आगे
बढ़ा। जिले के जाट कहते है कि इस विजय के बाद
बिजनौर का नाम विजयनगर हुआ। विजय नगर ही बाद
में बिजनौर हुआ।
जबकि विजय नगर के बिजनौर होने के कोई ऐतिहासिक सबूत नही मिलते।हां, जाट परिवार के बुजुर्ग
बताते हैं कि उनके मुस्लिम हुआ पुरोहित का परिवार बिजनौर शहर में पुरानी तहसील के
पीछे रम्मू के चौराहे के पास रहता था।यह उनके परिवार में सदा सम्मान पाता रहा। इस परिवार के सदस्य जब उनके घर आते तो
चारपाई पर परिवार के मुखिया के सिरहाने बैठते थे।
झालू
के रहने वाले और कैनेडा में जा बसे देवेंद्र गुप्ता अपने परिवार के बार में अपने ब्लॉग में कहते हैं
कि हमारे परिवार की एक छोटी सी पृष्ठभूमि
है।जैसा कि मैंने अपने दादा-दादी
और अन्य बड़ों से जाना,सुना। हमारा
परिवार यह एक छोटे से
ग्रामीण पृष्ठभूमि, छोटे शहर, झालू , (बिजनौर, यूपी) से आता है। हमारे
पूर्वज वहां लंबे समय तक रहे, लेकिन सबसे
पुरानी कहानी यह है कि हमारे परिवार
वाले जमींदार थे और
उनके प्रतिद्वंद्वी, पठान(एक मुस्लिम
समुदाय) के पास भी खेती की जमीन थी।
रक्षाबंधन दिवस
के एक अवसर पर
, उन पठानों ने हमारे सभी पुरुष पूर्वजों को मार डाला और फिर उस समय की
प्रथा के अनुसार महिलाओं ने सत्ती की।उन
दिनों सत्ती की रस्म थी कि पति की मृत्यु के बाद विधवा आत्मदाह कर लेती थी)। कस्बे
में आज भी हमारा वह पुराना सत्ती घर है। वास्तव में, हमारे गृह देवता भी वहां रहते हैं। पहले के दिनों
में, हम वहां जाकर
अपने गृह देवता को विवाह, नामकरण और
यज्ञोपवीत आदि जैसे महत्वपूर्ण समारोहों के लिए घर लाते थे।
झालू से दूर अपने
माता-पिता के साथ रहने वाली केवल एक गर्भवती महिला ही बच गई। बाद में, उसने एक बच्चे को जन्म
दिया, जो व्यस्क होने
पर, उसकी जड़ों का
पता लगाने के लिए गंभीरता से सोचा। वास्तव में, उस नरसंहार के प्रतिशोध की गहरी भावना उसके पूर्वजों को हुई।
इस बात को ध्यान में और दृढ़ संकल्प के साथ, अपनी मां और अन्य माता-पिता के रिश्तेदारों के विरोध के
बावजूद , वह झालू चले गए।
वह खारी के पास हमारे बगीचे (जहां हमारे पास एक कुआं और आश्रय के लिए एक छोटा कमरा
था) में आया। उसका सामना एक शेर से हुआ। रूहेलखंड के शासक (नवाब) यहां शेर का शिकार के लिए कैंप किये हुए
थे। उस( हमारे पूर्वज ) के पास शेर का सामना करने के अलावा कोई चारा नहीं था। उसने
अपनी पगड़ी निकाली और शेर के मुंह में डाल दी । इससे शेर का दम घुट गया और
उसकी मौत हो गई।
इस
घटना को लेखक के परिवार के
बुजर्ग इस तरह से बताते थे। कि बनियों के परिवार के को नहटौर तिराहे के पास बाग में शोच गए थे। यहां उन
पर शेर ने हमलाकर दिया । उन्होंने शोच साफ करने के लिए
साथ में लिया पानी का लोटा शेर के फैले मुंह में दे दिया।इस लोटे में अपना बांया हाथ डालकर कसके लोटा पकड़े रखा।शेर लोटे काअपने दातों से नही तोड़ सका और लाला जी ने दांए हाथ के घुंसे मारमार कर शेर
को मार डाला।
नवाब
ने शेर का पीछा करते हुए मौके पर आए।उन्होंने शेर को पकड़े एक युवक को मृत पाया।
उन्होंने उनके साहस की सराहना की और उन्हें " शेर मार पंजू "(जिसका अर्थ
है वह व्यक्ति जिसने अपनी वीरता के लिए शेर को अपने पंजा-हाथों से मार डाला) की उपाधि से सम्मानित
किया। वह नवाब इतना प्रसन्न हुआ कि
उसने उनके परिवार आदि के बारे में पूछा।
इसपर उन्होंने अपने
पूर्वजों की कहानी बताई।नवाब ने उनकी भूमि वापस करा दी और पठानों को झालू छोड़कर जाने के
लिए कहा । पठानों के
पुनर्वास की व्यवस्था एक नए
गांव में - नवादा कलां (नया गांव / बस्ती) में की। उन्हें चेतावनी दी कि वे किसी भी बदला लेने या
अत्याचार के लिए पीछे मुड़कर न देखें। इसके बाद हमारे पूर्वज अपने पूर्वजों के शहर, झालू में अपने सभी रिश्तेदारों साथ बस गए। संपत्ति और
जमीन उन्हें वापस दी गई। मुझे उनका असली नाम नहीं मिला लेकिन शेर मार पंजू ही याद
रहा। वह हमारे गर्ग परिवार के सबसे
हालिया ऐतिहासिक पूर्वज हैं । हमारा गर्ग
परिवार अब काफी बड़ा और
चौड़ा हो गया है, (मोटे तौर पर
महलवाले, कोठीवाले और हम
में जाना जाता है)। परिवार के अधिकांश सदस्य दूसरे शहरों और विदेशों में बस गए, अब कस्बे में कुछ ही बचे
हैं।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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