कण्व आश्रम

 

कण्व  आश्रम

 

 

प्राचीन भारत में 'कण्व' नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध वह  महर्षि कण्व थे, जिन्होंने अप्सरा मेनका के गर्भ से उत्पन्न ऋषि  विश्वामित्र की कन्या शकुंतला को पाला और बड़ा किया । देवी शकुन्तला के धर्मपिता के रूप में महर्षि कण्व की अत्यन्त प्रसिद्धि है।ये उस समय में कुलाधिपति थे विश्व का पहला गुरूकुल इनका ही था। पुराणों के अनुसार कण्व आश्रम में दस हजार ऋषि शिक्षा ग्रहण करते थे।

वीकीपीडिया के अनुसार  कण्व या कण्व ( संस्कृत : कण्व कण्व ), जिसे कर्णेश भी कहा जाता हैत्रेता युग के एक प्राचीन हिंदू ऋषि थे     ऋग्वेदके कुछ सूक्त इनके  बताए गए हैं। वह अंगिरसों में से एक थे । उन्हें घोरा का पुत्र कहा गया है, लेकिन यह वंश प्रगथ कण्व का है, जो बाद के कण्व थे, जिनमें से कई थे।  हालाँकिपौराणिक साहित्य में उनके अन्य अलग-अलग वंश हैं, एक अप्रतिरथ के पुत्र और राजा मतिनारा के पोते के रूप में, और दूसरा अजमीध के पुत्र के रूप में, जो तंसु के भाई तानसु की नौवीं पीढ़ी के वंशज थे। अप्रतिरथ (अतिरथ), या अजमीध का जो मतिनारा का समकालीन था।  यह अंतिम आधुनिक सहमति प्रतीत होती है।  उन्हें कभी-कभी सात ऋषियों ( सप्तऋषियों ) की सूची में शामिल किया जाता है। कण्व का एक पुत्र मेधातिथि था।   कण्व का उल्लेख महाभारत में शकुंतला के मानस  पिता के रूप में भी किया गया है 

·        कण्व (कर्णेश) शुक्ल यजुर्वेद की एक वैदिक शाखा के संस्थापक का नाम भी है , और इसलिए हिंदू धर्म की उस धार्मिक शाखा का नाम कण्व शाखा है  

·        कण्व (कर्णेश) कई राजकुमारों और राजवंशों के संस्थापकों और कई लेखकों का नाम भी है। 

·        कण्व (कर्णेश) राजा वासुदेव कण्व (पहली शताब्दी ईसा पूर्व) के वंशज हैं। 

·        महाकवि कालिदास ने अपने 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में महर्षि के तपोवन, उनके आश्रम-प्रदेश तथा उनका, जो धर्माचारपरायण उज्ज्वल एवं उदात्त चरित प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। उनके मुख से एक भारतीय कथा के लिये विवाह के समय जो शिक्षा निकली है, वह उत्तम गृहिणी का आदर्श बन गयी। महर्षि कण्व शकुन्तला की विदाई के समय कहते हैं-

"शुश्रुषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीज ने पत्युर्विप्रकृताऽपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम:। भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामा: कुलस्याधय:॥"[1]

·        103 सूक्त वाले ऋग्वेद के आठवें मण्डल के अधिकांश मन्त्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों तथा गोत्रजों द्वारा दृष्ट हैं। कुछ सूक्तों के अन्य भी द्रष्ट ऋषि हैं, किंतु 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' के अनुसार महर्षि कण्व अष्टम मण्डल के द्रष्टा ऋषि कहे गये हैं।

·        ऋग्वेद के साथ ही शुक्ल यजुर्वेद की 'माध्यन्दिन' तथा 'काण्व', इन दो शाखाओं में से द्वितीय 'काण्वसंहिता' के वक्ता भी महर्षि कण्व ही हैं। उन्हीं के नाम से इस संहिता का नाम 'काण्वसंहिता' हो गया।

·        ऋग्वेद में इन्हें अतिथि-प्रिय कहा गया है। इनके ऊपर अश्विद्वय की कृपा की बात अनेक जगह आयी है और यह भी बताया गया है कि कण्व-पुत्र तथा इनके वंशधर प्रसिद्ध याज्ञिक थे तथा इन्द्र के भक्त थे।

·        ऋग्वेद के 8वें मण्डल के चौथे सूक्त में कण्व-गोत्रज देवातिथि ऋषि हैं; जिन्होंने सौभाग्यशाली कुरुंग नामक राजा से 60 हज़ार गायें दान में प्राप्त की थीं।

धीभि: सातानि काण्वस्य वाजिन: प्रियमेधैरभिद्युभि:। षष्टिं सहस्त्रानु निर्मजाम जे निर्यूथानि गवामृषि:॥

·        इस प्रकार ऋग्वेद का अष्टम मण्डल कण्ववंशीय ऋषियों की देवस्तुति में उपनिबद्ध है। महर्षि कण्व ने एक स्मृति की भी रचना की है, जो 'कण्वस्मृति' के नाम से विख्यात है।

·        अष्टम मण्डल में 11 सूक्त ऐसे हैं, जो 'बालखिल्य सूक्त' के नाम से विख्यात हैं। देवस्तुतियों के साथ ही इस मण्डल में ऋषि द्वारा दृष्टमन्त्रों में लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण सम्बन्धी उपयोगी मन्त्र भी प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिये 'यत् इन्द्र मपामहे.इस मन्त्र का दु:स्वप्र-निवारण तथा कपोलशक्ति के लिये पाठ किया जाता है। सूक्त की महिमा के अनेक मन्त्र इसमें आये हैं। गौ की सुन्दर स्तुति है, जो अत्यन्त प्रसिद्ध है। ऋषि गो-प्रार्थना में उसकी महिमा के विषय में कहते हैं- "गौ रुद्रों की मातावसुओं की पुत्रीअदिति पुत्रों की बहिन और घृतरूप अमृत का ख़ज़ाना है, प्रत्येक विचारशील पुरुष को मैंने यही समझाकर कहा है कि निरपराध एवं अवध्य गौ का वध न करो!

धार्मिक कथाओं के अनुसार शकुन्तला का पालन करने वाले प्रसिद्ध ऋषियों में से एक थे, कण्व ऋषि । बता दें शकुंतला अप्सरा मेनका और विश्वामित्र की पुत्री तथा राजा दुष्यंत की पत्नी थी। महाकवि कालिदास ने अपने अभिज्ञान शाकुनंतलम् में दुष्यंत और शकुंतला की कहानी को बहुत अच्छे से चित्रित किया है। तो वहीं 103 सूक्त वाले ऋग्वेद की 8वें मण्डल के अधिकांश मंत्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों व गोत्रजों द्वारा उच्चारित हैं। इसमें इन्हें अतिथि-प्रिय भी कहा गया है। ऐसा भी कहा जाता है कि देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्व ने ही व्यवस्थित किया है। धार्मिक किंवदंतियों के अनुसार महर्षि कण्व ने एक स्मृति की भी रचना की है, जिसे 'कण्वस्मृति' के नाम से जाना जाता है।


वैदिक काल के ऋषि कण्व के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। कुछ सूक्तों के अन्य भी द्रष्ट ऋषि हैं, किंतु 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' के अनुसार महर्षि कण्व अष्टम मण्डल के द्रष्टा ऋषि कहे गए हैं। इनमें लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण सम्बन्धी उपयोगी मंत्र हैं।

 

पुराणों के अनुसार कण्व आश्रम में दस हजार ऋषि शिक्षा ग्रहण करते थ। कण्वऋषि अपने  गुरूकुल के कुलाधिपति थे। भारत डिस्कवरी के अनुसार कण्वाश्रम चारों वेदोंव्याकरणछन्दनिरुक्त, ज्योतिषआयुर्वेद, शिक्षा तथा कर्मकाण्ड इन छ: वेदांगों के अध्ययन-अध्यापन का प्रबन्ध था। आश्रमवर्ती योगी एकान्त स्थानों में कुटी बनाकर या गुफ़ाओं के अन्दर रहते थे।

इंपीरियल गजेटियर  आफ इंडिया वोल्यूम आठ वर्ष 1907 के पेज 193  बिजनौर जनपद में कहा गया है कि जनपद में आकर गंगा का तल चौड़ा हो जाता है और नांगल से नदी नौगम्य है। गंगा की पहली महत्वपूर्ण धारा मालिन है, जो गढ़वाल की पहाड़ियों से निकलती है और जिले के उत्तर-पश्चिम हिस्से में बहती है। इस मालन  नदी को संस्कृत साहित्य में महत्वपूर्ण माना जाता है कालिदास के शकुंतला नाटक का दृश्य इसके किनारों के पास रखा गया है।

प्रसिद्ध आर्य विद्वान स्वामी इंद्रवेश कहते हैं कि कण्वआश्रम वहां था  जहां  गंगा  और मालन नदी आपस में मिलती है।इनके मिलन स्थल के रेत में पक्षी किल्लोत करते हैं।

उत्तर प्रदेश पुरातत्व  विभाग  का भी  यही मानना  है। क्षेत्रीय पर्यटन कार्यालय बरेली द्वारा विदुर कुटी पर  कहना है कि कण्व  आश्रम   विदुरकुटी से 22 किलोमीटर दूर रावली में है।

बिजनौर के श्री जगन्नाथ शास्त्री और  श्री  रामकुमार वैद्य ने 1962 में कण्व  ऋषि आश्रम सांस्कृतिक शिक्षा समिति की गठन किया। रावली से सटा  गांव ब्रह्मपुरी बिजनौर के ब्रह्मस्वरूप  सोती की जमीदारी था। गांव का नाम भी उन्‍ही के नाम पर है। 1952 में जमींदारा खत्म  हुआ। उनकी 62 बीघा जमीन जमींदारा  खत्म होने   पर ग्राम  समाज के हिस्से में आ गई थी। तत्कालीन प्रधान श्री बलजीत सिंह ने यह जमीन इस समिति के  नाम कर दी।जमीन श्री जगन्नाथ शास्त्री जी के नाम हुई।इन्होंने मिलकर इस स्थान का विकास करने का निर्णय लिया।कण्व ऋषि का  मंदिर बनवाया। तत्कालीन रक्षामंत्री जगजीवन राम ने इस मंदिर का  उद्घाटन किया।

श्री रामकुमार वैद्य ने कण्वभूमि के नाम से लंबे समय तक  साप्ताहिक अखबार भी  निकाला।बाद में श्री रामकुमार वैद्य जी के साले  श्री राधे कृष्ण  बंधु से कण्व भूमि नाम से कई  साल सांध्य  दैनिक भी  निकाला। 22 जुलाई 1992 में रामकुमार वैद्य और 1993 में जगन्नाथ जगन्नाथ शास्त्री का निधन  हो गया।ये जमीन कण्वाश्रम के ही नाम रही।  जिलाधिकारी ने जमीन का प्रबधंक एसडीएम को  बना  दिया। कण्व मंदिर परिसर में बेसिक शिक्षा विभाग का  स्कूल बन गया।कुछ लोगों ने इसे दूसरा  रूप देने के लिए जगजीवन राम जी के नाम का पत्थर तोड़कर उसे हटा दिया। उससे  आगे वह कुछ न कर पाएं। जमीन प्रत्येक वर्ष  नीलाम होती रही।आज इसके पास आठ लाख से अधिक का कोष  मौजूद है।    

अब पद्म सिंह जी इस संस्था को चला रहे हैं। उन्होंने दानदाताओं के  सहयोग यहां  दस लाख रूपये  लगाकर दो हट और एक गेट और रास्ता बनवाया। अंदर रास्ता लेकर  यहां  काफी वि‍कास कराया है। प्रत्‍येक रवि‍वार  को प्रात:  यहां यज्ञ होता  है।वर्तमान में प्रदेश सरकार ने इस स्‍थान के  वि‍कास के लि‍ए  एक करोड़ रूपया दि‍या है बि‍जनौर जि‍ला पशासन इसके विकास के लिए प्रयासरत है।  

−अशोक मधुप  का लेख*

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